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गीता दर्शन अध्याय-१६ भगवान श्री रजनीश
गीता दर्शन अध्याय-१६ भगवान श्री रजनीश
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गीता काव्य है। इसलिए एक-एक शब्द को, जैसे काव्य को हम समझते हैं वैसे समझना होगा। एक दुश्मन की तरह नहीं, एक प्रेमी की तरह। तो ही रहस्य खुलेगा और तो ही आप उस रहस्य के साथ आत्मसात हो पाएंगे। गीता कंठस्थ हो सकती है। पर जो कंठ में है, उसका कोई भी मूल्य नहीं। क्योंकि कंठ शरीर का ही हिस्सा है। जब तक आत्मस्थ न हो जाए। जब तक ऐसा न हो जाए कि आप गीता के अध्येता न रह जाएं, गीता कृष्ण का वचन न रहे, बल्कि आपका वचन हो जाए। जब तक आपको ऐसा न लगने लगे कि कृष्ण मैं हो गया हूं और जो बोला जा रहा है, वह मेरी अंतर-अनुभूति की ध्वनि है, वह मैं ही हूं वह मेरा ही फैलाव है। तब तक गीता पराई रहेगी, तब तक दूरी रहेगी, द्वैत बना रहेगा। और जो भी समझ होगी गीता की, वह बौद्धिक होगी। उससे आप पंडित तो हो सकते हैं, लेकिन प्रज्ञावान नहीं। - भगवान श्री रजनीश
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